जिस समय सिंकदर पश्चिमी भारत को विजीत कर रहा था, उस समय पूर्वी भारत में राजनैतिक अराजकता फैली हुई थी। केवल मगध का राज्य ही एकमात्र शक्तिशाली राज्य था। मगध राज्य की सैनिक शक्ति से भयभीत होकर ही सिकंदर के सैनिकों ने आगे बढ़ने से इंकार कर दिया था, जिसके कारण सिकंदर को अपनी विजय अधूरी छोड़कर ही वापस लौटना पड़ा था। मगध राज्य के शासक काफी अलोकप्रिय थे। साथ ही इधर एक व्यक्ति मगध राज्य को पराजित करने की योजना बना रहा था। उस महान व्यक्ति का नाम चंद्रगुप्त मौर्य था। चंद्रगुप्त की जाति के संबंध में विद्वानों में बहुत मतैक्य है। बहुत से विद्वान उसे किसी नीच जाति का मानते हैं। कुछ विद्वान उसे क्षत्रिय मानते हैं। वहीं कुछ उसे मगध सम्राट नंद का बेटा, जो मुरा नाम की शुद्र स्त्री से उत्पन्न हुआ मानते हैं। कुछ भी हो चंद्रगुप्त एक महान वीर, योग्य तथा पराक्रमी शासक था। चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म ई. सन से लगभग तीन सौ पैतालीस वर्ष पूर्व हुआ था। इसका पालन पोषण माता ने किया था। कुछ लोगों का मत है ,चंद्रगुप्त मगध सम्राट के यहां काम करता था। पर कुछ कारणों से राजा से उसकी खटपट हो गई। अतः उसे नौकरी छोड़नी पड़ी। चाणक्य नाम का एक ब्राम्हण भी नंद राजा का दुश्मन था ,क्योंकि राजा नदं ने उसका अपमान कर दिया था। इस प्रकार चंद्रगुप्त और चाणक्य दोनों नंदवंश को उखाड़ फेंकना चाहते थे। संयोग से चंद्रगुप्त की भेंट चाणक्य से हो गई।
दोनों ने मिलकर नंदवंश के नाश की योजना बनानी शुरू की। दोनों ने कुछ थोड़ी सेना इकट्ठी की और मगध पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में इनकी पराजय हो गई। फलस्वरूप चाणक्य तथा चंद्रगुप्त दोनों को मगध छोड़ना पड़ा। मगध से भागकर चंद्रगुप्त चाणक्य के साथ पंजाब की ओर चला गया। उन दिनों सिकंदर पंजाब के राज्यों को जीत रहा था चंद्रगुप्त ने सोचा कि यदि सिंकदर नंद राज्य को जीत ले और फिर भारत से वापस चला जाये, तो मैं नंदराज्य पर अधिकार जमा लूं। इस विचारसे चंद्रगुप्त सिकंदर से मिला। पर उसकी बात से सिकंदर चिढ़ गया। और उसने अप्रसन्न होकर चंद्रगुप्त को मार डालने की आज्ञा दे दी, पर चंद्रगुप्त किसी तरह सिकंदर के चंगुल से भाग निकला। सिकंदर के वापिस जाने के बाद पंजाब में ही रहकर चंद्रगुप्त ने सेना इकटठी करनी शुरु कर दी। चाणक्य ने भी उसकी पूरा ‘सहायता की दोनों ने मिलकर पंजाब के राजाओं को भी उकसाया। इस प्रकार चंद्रगुप्त के पास काफी विशाल सेना हो गई। और साथ ही वह पंजाब की जनता तथा राजाओं में लोकप्रिय हो गया। सेना -इकट्ठी करके चंद्रगुप्त ने सिकंदर के उन सेनापतियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। जिन्हें सिकंदर लौटते समय उन राज्यों का गवर्नर बना गया था, जो उसने जीते थे। चंद्रगुप्त ने अपनी सेना के बल से उत्तर पश्चिमी भारत से यूनानियों को मार भगाया। इस प्रकार पंजाब पर उसका पूर्ण अधिकार हो गया। इसके बाद चाणक्य ने काश्मीर की पहाड़ियों के राजा पर्वतेश्वर से संधि कर ली, ताकि एक विशाल सेना लेकर मगध के साम्राज्य पर आक्रमण किया जा सके।
इस प्रकार एक विशाल सेना लेकर चंद्रगुप्त मगध के नंद शासक पर आक्रमण करने चला। नंद राज्य का सेनापति भद्रशाल था। वह अपनी सेना लेकर युद्ध क्षेत्र में आ गया पर चंद्रगुप्त के सामने वह ठहर नहीं सका। चंद्रगुप्त इस युद्ध में विजयी रहा। इसके बाद नंदवंश के अन्य लोगों का भी वध कर दिया गया। इस प्रकार मगध पर अधिकार हो जाने के बाद संपूर्ण उत्तरी भारत पर चंद्रगुप्त का अधिकार हो गया। इन युद्धों में चाणक्य ने चंद्रगुप्त की बड़ी सहायता की थी। इन युद्धों की विजय में जहां चंद्रगुप्त की वीरता का महत्व है वहां चाणक्य की कूटनीति तथा बुद्धि का भी है। इस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य मगध का सम्राट बना। चाणक्य को उसने अपना प्रधानमंत्री बनाया। मगध के सिंहासन पर बैठने के बाद चंद्रगुप्त ने अपनी सेना का बहुत सुंदर संगठन किया। उसकी सेना में छह लाख पैदल बीस हजार घुडसवार और नौ हजार लडाकू हाथी थे। चंदगुप्त का राज्य मगध और पंजाब तक सीमित नहीं था। जूनागढ़ के शिलालेख से तो यह भी प्रमाण मिलता है कि सौराष्ट्र भी उसके राज्य के अधीन था। कुछ इतिहासविदों का कहना है कि छह लाख सेना लेकर चंद्रगुप्त दक्षिण विजय को गया एवं वहां भी उसने अधिकार स्थापित किया। चंद्रगुप्त के शासन कार्य में उसका प्रधानमंत्री चाणक्य उसकी बड़ी सहायता करता था। चंद्रगुप्त की शासन व्यवस्था बहुत अच्छी थी। उसके संपूर्ण शासन को आठ अंगों में बांटा जा सकता है। केंद्रीय शासन, प्रांतीय शासन, नगर शासन, जनपद ग्रामीण शासन, सैनिक प्रबंध, न्याय व्यवस्था, अर्थ विभाग, गुप्तचर विभाग ।
केंद्रीय शासन-
शासन का सारा अधिकार सम्राट को प्राप्त था। वह स्वतंत्र था और उसके मार्ग में कोई बाधा नहीं थी। देश के लिये वही कानून बनाता और देश का सबसे बड़ा न्यायाधीश भी वहीं था। अपनी प्रजा के प्रति चंद्रगुप्त कभी उदासीन नही रहा। उसने वहीं कार्य किये, जो प्रजा के लिये हितकारी थे। मौर्य शासन कठोर व निरंकुश था। और समय को देखते हुए ऐसा होना ठीक ही था। शासन के काम में सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्री परिषद थी। मंत्रियों के अधीन और भी बहुत से कर्मचारी होते थे। चाणक्य चंद्रगुप्त का प्रधानमंत्री था, मंत्री परिषद की एक अंतरंग समिति थी, जिसमें प्रधानमंत्री, पुरोहित, सेनापति तथा युवराज होते थे। युद्ध और शांति के मामले में सम्राट को परापर्श देने के लिये कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों की एक समिति होती थी, पर सम्राट मंत्री परिषद या इस समिति की राय मानने के लिये विवश नहीं था। इसके अलावा अन्य भी अनेक महत्वपूर्ण पदाधिकारी थे।
प्रांतीय शासन-
संपूर्ण साम्राज्य प्रांतों में विभाजित व समीप के प्रांतों का शासन स्वयं सम्राट के अधीन होता था और दूर के मुख्य मुख्य प्रांतों का शासन राजकुल के कुमार करते थे। चंद्रगुप्त का साम्राज्य कितने राज्यों में विभक्त था वह ज्ञात नहीं है प्रांत के शासको को बारह सौ पण वार्षिक वेतन मिलता था। प्रांत जनपदों में बंटे हुये थे। एक जनपद में कई गण होते थे, गण का अधिकारी स्थानिक कहलाता था। कई गांवों को मिलाकर एक गण बनता था। प्रत्येक गांव में एक मुखिया होता था। इसी प्रकार नगरों में मुख्य अधिकारी नागरिक होता था।
नगर शासन-
पाटलीपुत्र के नगर शासन के संबंध में अनुमान है कि सभी बड़े नगरों में भी ऐसी ही व्यवस्था रही होगी। नगर का शासन नागरिकों के हाथ में था। उस समय आजकल की सी नगरपालिकांए होती थी। नगर के शासन का सारा कार्य समितियों द्वारा होता था। और प्रत्येक समिति में पांच सदस्य होते थे। पहली समिति औद्योगिक शिल्पों की देखभाल करती थी। कारीगरों तथा शिल्पकारों की देखभाल करना तथा उनका परिश्रम के निर्धारित करना इसी समिति का काम था। दूसरी समिति विदेशियों की गतिविधियों तथा उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखती थी। ऐसा लगता है कि चंद्रगुप्त के राज्य में विदेशियों की संख्या काफी थी, तीसरी समिति नगर में होने वाले जन्मों तथा मृत्युओं का हिसाब रखती थी, चौथी समिति सामान्य व्यापार तथा वाणिज्य के लिये उत्तरदायी थी। लेनदेन में सही मापों तथा बांटों का प्रयोग किया जाये इस बात की निगरानी वही समिति करती थी। एक से अधिक वस्तुओं का व्यापार करने वालों को अपेक्षाकृत अधिक कर देना पड़ता था, कारखानों तथा उत्पादों का निरीक्षण करना पांचवी समिति का काम था। यह समिति ध्यान रखती थी कि नई व पुरानी वस्तुएं एक साथ मिलकर न बेची जाये।
जनपद शासन-
• गांवों का शासन पहले जैसा ही था गांव शासन की सबसे छोटी इकाई थे। गांव का प्रबंधकर्ता ग्रामिक कहलाता था, जो ग्राम वृद्धों की सहायता से गांव का प्रबंध करता था। पांच या दस गांवों का अधिकारी गोप कहलाता था। इससे बड़े क्षेत्र का अधिकारी स्थानिक कहलाता था। स्थानिक से बड़ा अधिकारी समाहर्ता होता था।
सैनिक प्रबंध-
चंद्रगुप्त को मगध साम्राज्य की काफी सेना मिली थी। बाद में उसने अपनी सेना को और भी बढ़ाया। चंद्रगुप्त की सेना में छह लाख पैदल, तीस हजार घुडसवार,नौ हजार हाथी और आठ हजार रथ थे। इतनी बड़ी विशाल सेना का प्रबंध करने के लिये एक परिषद थी, जिसमें तीस सदस्य होते थे। पांच पांच सदस्यों की छह समितियां बनी हुई थी। सेना के निम्नलिखित विभाग एक एक समिति के अधीन थे। नौ सेना, यातायात तथा युद्ध सामग्री, पैदल सेना, अश्व सेना, रथ सेना और गज सेना, नौ सेना समिति का काम नौकाओं व जहाजों की देखभाल करना था, सेना यातायात तथा युद्ध सामग्री समिति का काम सेना के आवागमन का प्रबंध करना, तथा युद्ध सामग्री पहुंचाने का प्रबंध करना था। पैदल सेना समिति का काम पैदल सैनिको का प्रबंध करना था। अश्व सेना समिति का काम घुडसवारों तथा घोड़ों की देखभाल करना था, रथ सेना समिति का काम युद्ध के रथों का प्रबंध करना था। और गज सेना समिति का काम लडाकू हाथियों संबंधी प्रबंध करना था।
न्याय व्यवस्था-
सम्राट देश का सबसे बड़ा न्यायाधीश था। नगरों व गांवो में अलग अलग न्यायालय थे, जिनमें मुकदमों के फैसले किए जाते थे। बहुत से मामले साधरण पंचायतों द्वारा तय हो जाते थे, नीचे के न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध उपर के न्यायालयों ने अपील करने का नियम था। दण्ड बहुत कठोर था। कठोर दण्ड इसलिये थे कि अपराध बहुत कम हो। अपराधी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई जाती थी। छोटे छोटे अपराधों पर भी बहुत सजा दी जाती थी। अंगहानि करने या अपवंचन करने के अपराधों में मृत्युदण्ड दिया जाता था । व्याभिचारी का अंग भंग कर दिया जाता था। दण्डों की कठोरता का प्रभाव यह हुआ कि अपराध बहुत ही कम होते थे।
अर्थ विभाग- साम्राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर या संपूर्ण उपज का चौथाई भाग कर के रूप में लिया जाता था! कुछ अवस्थाओं में यह कर उपज का आठवां भाग भी लिया जाता। भूमिकर की वसूली की बड़ी अच्छी व्यवस्था थी। समाहर्ता नामक अधिकारी इसी काम के लिये होता था। जमींदारी प्रथा नहीं थी। सम्राट तथा किसानों का सीधा संबंध था। राज्य की ओर से भूमि का सिंचाई आदि की व्यवस्था होती थी। नगरों में जन्म मरण कर, जुर्माने तथा बिक्री कर से भी राज्य को आय होती थी। -इसके अलावा खान, वन, घाट, तथा चुंगी आदि भी राज्य के आय के साधन थे।
गुप्तचर विभाग-
सम्राट चंद्रगुप्त का गुप्तचर विभाग बहुत अच्छा संगठित था। इसका मुख्य काम अपराधियों तथा विद्रोहियों पर निगरानी रखना तथा उनकी गतिविधियों का पता लगाना था। ये भेष बदलने में बड़े निपुण होते थे। तथा तरह तरह की भाषाएं भी जानते थे। इस तरह वे हर तरह के लोगों में जाकर सब प्रकार की बातें मालूम कर लेते थे। कुछ गुप्तचर एक स्थान पर रहते थे, और कुछ इधर उधर घूमते फिरते थे। राजा के पास ये अपनी क्रियाकलापों का ब्यौरा भेजा करते थे।
चंद्रगुप्त की राजधानी पाटलीपुत्र थी। गंगा और सोन नदी के संगम पर बसा हुआ यह नगर साढ़े नौ मील लंबा और लगभग एक बटै तीन चौथाई मील चौड़ा था। नगर की रक्षा के लिये छह सौ फीट से अधिक चौडी तथा तीस हाथ गहरी खाई चारों तरफ बनाई गई थी। इसके अलावा एक ऊंची प्राचीन भी थी, जिसमें 570 बुर्ज तथा 64 द्वार थे। सारा शहर लकड़ी का बना होता था, जगह जगह पर टूटने वाले पुल तथा फाटक थे। विश्रामगृहों, नाट्यशालाओं, खेलघरों, दौड़ के मैदानों तथा अन्य प्रकार के सार्वजनिक स्थानों से नगर शोभायमान रहता था, बाजार बहुत सुंदर और व्यवस्थित थे। सड़कों पर भी खूब भीडभाड़ रहती थी। सम्राट का महल नगर के बीच में था, जिसके चारों ओर सुंदर बाग थे। सम्राट का महल भी लकड़ी का ही बना हुआ था। सम्राट का महल बड़ा भव्य एवं सुंदरता की मिशाल लिये अप्रतिम था। एक बार चंद्रगुप्त के राज्य में बहुत जोर का अकाल पड़ा। उसी समय वह जैन आचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत की ओर चला गया, और उधर ही 298 ई. पू. मे उसकी मृत्यु हो गईं।
लेखक –सुरेश सिंह बैस “शाश्वत
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