मिट्टी में मिलते जा रहे, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों के अरमान  

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मिट्टी के बर्तन बनाने के अलावा इनके पास और कोई दूसरा रोजगार नहीं है, न ही कृषि करने के लिए इनके पास भूमि है। और न अन्य साधन, जिससे आय का आवक हो पाए। यह जैसे-तैसे करके अपने परिवार को पाल रहे हैं। मौजूदा दौर में एल्युमीनियम, थर्माकोल व प्लास्टिक बर्तनों का खूब चलन चला है, जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। हमारे पूर्वज अपने समय में मिट्टी, लोहे व काँसे के बने बर्तनों का उपयोग करते थे। इसलिए उन्हें मौजूदा दौर की बीमारियाँ नहीं हुईं। यदि आप भी, अपने पूर्वजों की भाँति स्वस्थ्य जीवन-यापन करना चाहते हैं तो, मिट्टी के बने बर्तनों का उपयोग भोजन बनाने के लिए करें, ताकि आपके स्वस्थ्य के साथ ही इन कुम्हारों की माली हालत में सुधार हो सके।
प्रियंका सौरभ 
आधुनिक फ्रिज और एसी ने मिट्‌टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है। ये मिट्टी के बर्तन बनाकर रखतें हैं लेकिन बिक्री न होने की वजह से खाने के भी लाले पड़ जाते  हैं।  परिवार कैसे चलेगा। कोई भी मटके खरीदने नहीं आ रहा है। धंधे से जुड़े लोगों ने ठेले पर रखकर मटके बेचने भी बंद कर दिए हैं। देश भर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं। कुम्हार अपना पुश्तैनी काम छोड़ नहीं सकते. इसलिए उनके पास मिट्टी के बर्तन और गर्मी के दिनों में घड़े बेचने के अलावा कमाई का दूसरा विकल्प नहीं है. हालात ये हैं कि अब कुम्हार परिवार अपने काम को जिंदा रखने के लिए कर्ज लेकर व्यवसाय कर रहे हैं. लेकिन इससे भी इनकी लागत नहीं निकल रही. कुम्हार (कुंभकार) जाति के लोग मिट्टी से ही अपना रोजी-रोटी एवं जीवन-यापन करते हैं। कुम्हार शब्द, कुम्भकार से निकला हुआ प्रतीत होता है, जिसका अर्थ कुम्भ, यानि घड़ा बनाने वाला होता है। इन्हें कुम्भार, प्रजापति, प्रजापत, घूमियार, घूमर, कुमावत, भांडे, कुलाल या कलाल आदि नामों से भी अलग-अलग प्रदेशों में जाना जाता है। कुम्हारों की हस्तकला ही, उनके रोजगार का साधन होता है। कुम्हार अपने हाथों से मिट्टी की वस्तुएं बनाते हैं।
कुम्हार मिट्टी से वस्तुएं बनाने के लिए काली मिट्टी, लाल मिट्टी, रेत व राख आदि को एक साथ मिलाकर, पानी डाल कर अच्छे से मिक्स करते हैं। उसके बाद चाक (चकरी) में मिट्टी को रखकर उनको आकार देते हैं, और भिभिन्न-भिभिन्न वस्तुओं का निर्माण करते हैं। देवी-देवताओं की मूर्तियां, दीया, बोरा, बैल, करसा, क्लास, ठेकुआ, पुरा, मर्की, ओम, देवा, चूल्हा व बच्चों के खिलौने। मिट्टी के बर्तन पकने के बाद, उनको नजदीकी बाजार एवं चौक-चौराहों में बेचने के लिए ले जाते हैं। और उसके बाद, उसी वस्तुओं के पैसे से जो आमदनी उनको प्राप्त होती है, उसी से यह अपना जीवन-यापन और अपने बच्चों का पालन पोषण करते हैं। लेकिन इन मिट्टी के बर्तन या खिलौने का मूल्य उतना ज्यादा नहीं रहता, जीतना उसमें मेहनत लगता है। और-तो-और लेने वाला व्यक्ति भी, वस्तुएं लेने पर मोलभाव करके, उसमें पैसा कम करवा ही लेता है।
इन कुम्हारों का रोजगार उतना अच्छा नहीं रहता। क्योंकि, पहले के समय में, सभी लोग मिट्टी के बर्तन व मिट्टी के वस्तुएं उपयोग करते थे। लेकिन अभी, वर्तमान के समय में, मिट्टी के बर्तनो को लोग नहीं के बराबर इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि, सभी लोग स्टील के बर्तन, फाइबर के बर्तन आदि का अधिक यूज़ करते हैं। जिससे इनकी आमदनी, पहले के समय से कम होती है। गणेश पक्ष, दुर्गा पक्ष व विश्वकर्मा पक्ष आदि में ही इन लोगों को थोड़ी आमदनी हो पाती है और बाकी समय में इनको एक दिन में 100 से 200 रुपये भी मिलना मुश्किल हो जाता है। बहुत से कुम्हार, आमदनी अच्छी ना होने के कारण, मिट्टी के वस्तु बनाना छोड़ दिए हैं। और कुछ अन्य काम, अपने जीवन-यापन करने के लिए पकड़ लिए हैं और उसी में लगे हुए हैं। वह लोग इस काम को और करना नहीं चाहते। क्योंकि, इसमें मेहनत अधिक और आमदनी कम है।
 वर्तमान में कुम्हारों का स्थिति बहुत ही खराब  है। क्योंकि, पहले जैसा अभी के समय में लोग मिट्टी के समान उपयोग करना बंद कर दिए हैं। इस कारण, इनके पास जो बना हुआ वस्तु भी रहता है। वह भी बिक नहीं पाता है, जिससे इनको नुकसान ही उठाना पड़ता है। बाकि मिट्टी के वस्तुएं, अपने सीजन में ही बिक पाते हैं। बाकी समय इनका बिकना मुश्किल हो जाता है।  मिट्टी व पानी की समस्या ने इस धंधे की कमर तोड़ दी है। पहले इस व्यवसाय के लिए यह गांव काफी चर्चित था। लेकिन समय बीतते के साथ सब कुछ खत्म होने लगा है। गांव में कच्चे मकान की संख्या काफी कम हो गई है। जिस कारण छत में लगने वाले खपड़े की बिक्री नहीं के बराबर होती है। अब इस धंधे से लाभ नहीं है। सबसे ज्यादा परेशानी मिट्टी के लिए होती है। पहले वर्षों से मिट्टी वन विभाग की जमीन से लाई जाती थी। लेकिन वर्तमान में इस पर रोक लगा दी गई है। पानी की समस्या एवं कोयले के दाम में बढ़ोत्तरी। जिसने इस धंधे की कमर तोड़ कर रख दी है। परिवार के चार सदस्यों की कड़ी मेहनत के बाद एक दिन में ढाई सौ खपड़े का निर्माण हो पाता है। जिसे पकाकर तीन हजार रूपये में बेचा जाता है। लागत के अनुसार उन्हें लाभ नहीं मिल पाता है।
मिट्टी के बर्तन बनाने के अलावा इनके पास और कोई दूसरा रोजगार नहीं है, न ही कृषि करने के लिए इनके पास भूमि है। और न अन्य साधन, जिससे आय का आवक हो पाए। यह जैसे-तैसे करके अपने परिवार को पाल रहे हैं। मौजूदा दौर में एल्युमीनियम, थर्माकोल व प्लास्टिक बर्तनों का खूब चलन चला है, जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। हमारे पूर्वज अपने समय में मिट्टी, लोहे व काँसे के बने बर्तनों का उपयोग करते थे। इसलिए उन्हें मौजूदा दौर की बीमारियाँ नहीं हुईं। यदि आप भी, अपने पूर्वजों की भाँति स्वस्थ्य जीवन-यापन करना चाहते हैं तो, मिट्टी के बने बर्तनों का उपयोग भोजन बनाने के लिए करें, ताकि आपके स्वस्थ्य के साथ ही इन कुम्हारों की माली हालत में सुधार हो सके।
प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

 

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