रुपये में लगातार गिरावट भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी भारत के व्यापार घाटे, आयात निर्भरता और वैश्विक अस्थिरताओं से जुड़ी है। 2024 के अंत तक रुपये का मूल्य 85.53 प्रति डॉलर तक गिर गया, जो घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कारणों की जटिलता को दर्शाता है।
व्यापार घाटा और आयात पर निर्भरता
रुपये की कमजोरी का प्रमुख कारण भारत का बढ़ता व्यापार घाटा है। आयात की लागत में बढ़ोतरी और निर्यात की तुलना में कम वृद्धि ने यह अंतर और बढ़ा दिया है। विशेष रूप से, कच्चे तेल और सोने जैसे उत्पादों की आयात निर्भरता इस समस्या को बढ़ा रही है।
2024 में भारत का व्यापार घाटा लगभग $75 बिलियन तक पहुंच गया। कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों ने आयात बिल को 15% तक बढ़ा दिया, जिससे रुपये पर दबाव और बढ़ा। इसके अलावा, महंगे आयातों के कारण घरेलू मुद्रास्फीति भी बढ़ी, जिससे निर्यात प्रतिस्पर्धा प्रभावित हुई।
वैश्विक कारक: भू-राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता
रुपये की गिरावट का एक अन्य बड़ा कारण वैश्विक स्तर पर आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता है। रूस-यूक्रेन युद्ध और तेल उत्पादक देशों के बीच आपूर्ति संबंधी विवादों ने वैश्विक कच्चे तेल की कीमतों में भारी वृद्धि की। इसके अलावा, अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में बढ़ोतरी ने निवेशकों को सुरक्षित परिसंपत्तियों की ओर आकर्षित किया, जिससे भारतीय बाजारों से पूंजी बहिर्वाह हुआ।
अमेरिकी डॉलर की मजबूत स्थिति ने रुपये पर दबाव डाला। 2022-2023 के दौरान फेडरल रिजर्व की नीतियों के चलते विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार से बाहर निकलने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि रुपया लगातार कमजोर होता गया।
मुद्रास्फीति और पूंजी बहिर्वाह
घरेलू स्तर पर उच्च मुद्रास्फीति ने भी रुपये की कमजोरी में योगदान दिया है। जब आयात महंगा हो जाता है, तो वस्तुओं और सेवाओं की लागत बढ़ती है, जिससे घरेलू बाजार प्रभावित होता है। इसके साथ ही, पूंजी बाजार में विदेशी निवेशकों का बहिर्गमन रुपये की अस्थिरता को और बढ़ाता है।
2024 में, कॉर्पोरेट प्रदर्शन में गिरावट और बढ़ती स्टॉक वैल्यूएशन ने विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों को भारतीय बाजारों से दूर कर दिया। इस दौरान, केंद्रीय बैंक के हस्तक्षेप ने रुपये को अस्थायी राहत दी, लेकिन दीर्घकालिक समाधान की जरूरत अब भी बनी हुई है।
नीतिगत प्रतिक्रियाएँ: रिजर्व बैंक और सरकार की भूमिका
रुपये की गिरावट को रोकने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक ने कई कदम उठाए हैं। दिसंबर 2024 में, आरबीआई ने रुपये को स्थिर करने के लिए $20 बिलियन से अधिक के विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग किया। हालांकि, यह प्रयास केवल अस्थायी रूप से सफल रहा।
सरकार ने निर्यात को बढ़ावा देने और आयात निर्भरता को कम करने के लिए विभिन्न योजनाओं की घोषणा की है। स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देने के लिए भारत ने रूस और अन्य देशों के साथ व्यापार समझौतों पर जोर दिया। यह कदम विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव कम करने में सहायक साबित हो सकता है।
आगे का रास्ता: दीर्घकालिक समाधान की जरूरत
रुपये की स्थिरता बनाए रखने के लिए भारत को दीर्घकालिक नीतिगत सुधारों की जरूरत है।
निर्यात बढ़ाना: फार्मास्यूटिकल्स, आईटी और अन्य मूल्य वर्धित क्षेत्रों में निवेश को बढ़ावा देकर निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाया जा सकता है।
आयात निर्भरता कम करना: कच्चे तेल और अन्य आवश्यक वस्तुओं के लिए दीर्घकालिक आपूर्ति समझौतों पर जोर देना चाहिए।
विदेशी निवेश आकर्षित करना: स्थिर नीतियां और बेहतर कारोबारी माहौल निवेशकों का विश्वास बढ़ा सकते हैं।
भंडार प्रबंधन: मजबूत विदेशी मुद्रा भंडार के निर्माण और सॉवरेन वेल्थ फंड का उपयोग दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित कर सकता है।
वैश्विक आर्थिक एकीकरण और संरचनात्मक सुधार
भारत को वैश्विक मंच पर अपनी मुद्रा की स्थिति मजबूत करने के लिए संरचनात्मक सुधारों पर जोर देना चाहिए।
अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता कम करने के लिए स्थानीय मुद्राओं में व्यापार समझौतों को बढ़ावा देना आवश्यक है।
वैश्विक कूटनीतिक संबंधों को मजबूत कर आपूर्ति श्रृंखला में स्थिरता लाई जा सकती है।
निष्कर्ष: रुपये की गिरावट का सिलसिला भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ा जोखिम है। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर सामूहिक प्रयासों से ही इसे नियंत्रित किया जा सकता है। निर्यात प्रतिस्पर्धा को बढ़ाना, आयात निर्भरता कम करना, और स्थिर नीतिगत दृष्टिकोण अपनाना भारत को इस चुनौती से उबरने में मदद कर सकता है। दीर्घकालिक रणनीति और वैश्विक आर्थिक एकीकरण के साथ, भारत न केवल रुपये की स्थिरता बहाल कर सकता है बल्कि अपने आर्थिक विकास को भी नई ऊंचाइयों पर ले जा सकता है।
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