आजकल विभिन्न सामाजिक वर्गों में अलग-अलग िकस्म के अंधविश्वास प्रचलित हैं। इतने जागरूकता अभियानों के बावजूद आज भी आपको गांव-कस्बों में भूत-प्रेत के िकस्से सुनने को मिल जाएंगे। वहीं हायर क्लास के अंधविश्वास अलग हैं। इस क्लास में भी असुरक्षा की भावना कम नहीं है। इस वर्ग के लोग यूं तो अत्याधुनिक होने का दावा करते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे एयरकंडिशंड आश्रमों वाले गुरुओं के यहां लाखों का चढावा चढाने से लेकर अपनी सफलता/असफलता की वजह लकी चार्म को मानने से भी गुरेज नहीं करते। समाज में अतार्किक विचारधारा वाले इतने अधिक लोग कहां से आ गए? जवाब है, वह परवरिश और माहौल जो हम अपने बच्चों को देते हैं। शिक्षा व्यवस्था के तहत बच्चों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने के उतने प्रयास नहीं हो रहे जितने होने चाहिए। संयुक्त परिवारों का टूटना और नई जीवन शैली का एकाकीपन, यांत्रिकता, तनाव आदि से पिछले रसायन ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जहां हर व्यक्ति परेशान और बेचैन हो चला है। इन्हीं सामाजिक-मनोवैज्ञनिक स्थितियों के बीच लोग जाने-अनजाने ऐसे बाबाओं की ओर उन्मुख होने लगते हैं जो लोगों को हर दु:ख-तनाव से छुटकारा दिलाने का दावा करते हैं।
-प्रियंका सौरभ
पिछले कुछ दशकों से उभरने वाले किस्म-किस्म के बाबाओं ने राष्ट्र के मुख पर कालिख पोतने का का किया है। अपनी अनुयायी स्त्रियों के शारीरिक शोषण, हत्या-अपहरण से लेकर अन्य जघन्य अपराध करने वाले बाबाओं का प्रभाव इस कदर बढ़ता जा रहा है कि आज जनता को तो छोड़िये, सदिच्छाओं वाले राजनेता, अभिनेता, अधिकारी, बुद्धिजीवी इत्यादि वर्ग भी उनसे घबराने लगा है। आखिर इन बाबाओं के महाजाल का समाजशास्त्र क्या है? इसी तरह सवाल यह भी है कि इनके पीछे जनता के भागने का क्या अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान है? आजकल विभिन्न सामाजिक वर्गों में अलग-अलग िकस्म के अंधविश्वास प्रचलित हैं। इतने जागरूकता अभियानों के बावजूद आज भी आपको गांव-कस्बों में भूत-प्रेत के िकस्से सुनने को मिल जाएंगे। वहीं हायर क्लास के अंधविश्वास अलग हैं। इस क्लास में भी असुरक्षा की भावना कम नहीं है। इस वर्ग के लोग यूं तो अत्याधुनिक होने का दावा करते हैं, लेकिन इसके बावजूद वे एयरकंडिशंड आश्रमों वाले गुरुओं के यहां लाखों का चढावा चढाने से लेकर अपनी सफलता/असफलता की वजह लकी चार्म को मानने से भी गुरेज नहीं करते।
ऐसी मान्यताएं भारत ही नहीं बल्कि विश्व के सभी देशों में पाई जाती हैं। सवाल यह उठता है कि समाज में अतार्किक विचारधारा वाले इतने अधिक लोग कहां से आ गए? जवाब है, वह परवरिश और माहौल जो हम अपने बच्चों को देते हैं। शिक्षा व्यवस्था के तहत बच्चों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने के उतने प्रयास नहीं हो रहे जितने होने चाहिए। संयुक्त परिवारों का टूटना और नई जीवन शैली का एकाकीपन, यांत्रिकता, तनाव आदि से पिछले रसायन ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी जहां हर व्यक्ति परेशान और बेचैन हो चला है। इन्हीं सामाजिक-मनोवैज्ञनिक स्थितियों के बीच लोग जाने-अनजाने ऐसे बाबाओं की ओर उन्मुख होने लगते हैं जो लोगों को हर दु:ख-तनाव से छुटकारा दिलाने का दावा करते हैं। लोगों में वहम पैदाकर फायदा उठाने की कला बाजार ने भी सीख ली है। यही वजह है कि बाजार के जन्म दिए हुए बहुत सारे त्योहार आज परंपरा के नाम पर कुछ दूसरा ही रूप ले चुके हैं। किसी त्योहार पर गहने ख्ारीदने का प्रचलन है तो किसी पर महंगे जानवरों की कुर्बानी देने का। साधारण से रिवाज आज पूरी तरह आर्थिक रंग में रंग चुके हैं।
लोग भी इन्हें मानते रहते हैं बिना यह महसूस किए कि इससे नुकसान उन्हीं का हो रहा है। छोटे शहरों में आज भी पाखंडी बाबाओं और फकीरों का भी जाल फैला हुआ है जिनकी नेमप्लेट अकसर इनके मल्टीटैलेंटेड(?) होने का आभास कराती है। ये अकसर ख्ाुद को ट्रैवल एजेंट (विदेश यात्रा करवाने का दावा), फाइनेंशियल एक्सपर्ट(फंसा हुआ धन निकलवाने का दावा), रिलेशनशिप एक्सपर्ट (प्रेम विवाह करवाने का, सौतन से छुटकारा दिलाने का दावा) और मेडिकल एक्सपर्ट (एड्स, कैंसर जैसी बीमारियां ठीक करने का दावा) आदि बताते हैं। कई लोग इनके झांसे में आ भी जाते हैं और इनका बैंक बैलेंस बढाते हैं। देश में राजसत्ता-तंत्र अपने सामाजिक-आर्थिक दायित्व निभाने में अपेक्षाकृत पीछे ही रहा। दूसरी ओर इन बाबाओं द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य से संबंधित कार्य किए जाने लगे। इसके साथ ही भूखों को भोजन से लेकर अन्य सामाजिक कामों में हिस्सेदारी की जाने लगी। इस क्रम में उनकी ओर से समानता का भाव स्थापित करने भी का काम किया जाने लगा।
धीरे-धीरे वे लोगों के विवाद-झगड़ों का निपटारा भी करने लगे। वे ऐसे काम भी करने लगे जो राज्यसत्ता यानी शासन के हिस्से में आते थे। ऐसे कामों से उनकी लोकप्रियता बढ़ी। उनके कल्याणकारी कामों के तिलिस्म में न केवल गरीब-अभावग्रस्त और कम पढ़ी-लिखी जनता फंसी, बल्कि उनका जादू अपेक्षाकृत संपन्न और शिक्षित लोगों पर भी चला, जो जीवन की विविध जटिलताओं, सामाजिक-मानसिक समस्याओं में उलझे हुए हैं। इस तरह ये अपने अनुयायी बढ़ाकर सामाजिक वैधता हासिल करते हैं और फिर उसके बल पर राजनीतिक संरक्षण हासिल करने में समर्थ हो जाते हैं। बाबाओं को राजनीतिक संरक्षण देने के लिए कोई भी राजनीतिक दल पाक-साफ नहीं है। माना जाता है कि राजनीतिक पार्टियां अपना काला धन खपाने-छिपाने के लिए भी बाबा लोगों का इस्तेाल करती हैं। चूंकि बाबाओं के पास अनुयायियों की अच्छी-खासी संख्या होती है इसलिए राजनीतिक दलों के लिए वे वोट बैंक का भी का करते हैं। किसी बात पर आंख मूंदकर विश्वास करने की प्रवृत्ति आज की स्मार्टफोन जेनरेशन से किस कदर तर्कहीन काम करा सकती है।
इस वर्ग के लोग आंखें मूंदकर दूसरों का अनुसरण करते है और अपने विवेक का इस्तेमाल करके निर्णय नहीं ले रहे हैं। वे किसी काम को सिर्फ इसलिए करते हैं, क्योंकि वह सालों से होता आ रहा है, या उसे बहुत सारे लोग कर रहे हैं, और कभी नहीं सोचते कि उसकी उपयोगिता क्या है। दूसरे शब्दों में कहें, तो ऐसे लोग सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और भावनात्मक अंधविश्वासों में जकड़े होते हैं। इन लोगों का आइक्यू बेहद कम होता है और इन्हें बेहद आसानी से प्रभावित किया जा सकता है। ये रैशनली नहीं सोचते, पर इमोशनली बेहद चाज्र्ड होते हैं। इनके दिल में आसानी से किसी चीज के लिए लगाव या नफरत पैदा की जा सकती है और ऐसा होने पर ये किसी भी हद तक जा सकते हैं। आंख मूंद कर किया गया विश्वास न सिर्फ इनके लिए बल्कि दूसरों के लिए भी घातक साबित होता है। कबीर की शिक्षाओं का निचोड यही है कि हर तथ्य पर सवाल उठाएं। जब तक ख्ाुद उसे परख न लें, तब तक उस पर विश्वास न करें। दार्शनिक प्लूटो ने भी यही कहा है कि शासक हमेशा अनबायस्ड व्यक्ति को ही होना चाहिए। आज बहुत सारे लोगों में भीड का अनुसरण करने की मानसिकता है।
प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार
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